मणिपुर अपनी समृद्ध ऐतिहासिक विरासत, संस्कृति, परम्पराओं, वेषभूषा व खान-पान के अलावा अपनी सिने संस्कृति के लिए भी जाना जाता है। भारत के पूर्वोत्तर में स्थित राज्य मणिपुर में सिनेमा को आए 98 वर्ष के क़रीब हो चुके हैं। मेईति भाषा मणिपुर की आधिकारिक भाषा है,यह मणिपुर से सटे राज्य असम,त्रिपुरा और बाँग्लादेश व म्यांमार के कुछ हिस्सों में भी बोली जाती है। कह सकते हैं कि मणिपुरी सिनेमा का बाज़ार इन क्षेत्रों तक फैला हुआ है।
मणिपुर में सिनेमा टूरिंग सिनेमा के तौर पर शुरू हुआ यानि चलते-फिरते (Mobile Theatres) हुए फिल्मों का दिखाया जाना। 1920 में व्यवसायी कस्तूरी चन्द्र जैन और रामकुमार ने जगह-जगह घूम कर विदेशों से आयातित मूक फिल्मों का प्रदर्शन किया। धीरे-धीरे इसी तरह द्वितीय विश्व युद्ध के बाद इम्फाल में ही तीन स्थायी सिनेमा घर खुल गए- फ्रेंड्स टॉकीज़,एम.एन.बी. टॉकीज़ और विक्ट्री टॉकीज़।
टूरिंग सिनेमा का सिलसिला एक ओर चलता रहा तो दूसरी ओर विक्ट्री सिनेमा के मालिक अयैकपम विरमंगल ने मणिपुर में ही फिल्में बनाने का प्रयास शुरू किया। 11 शेयर धारकों के साथ मिलकर 1946-47 में ‘श्री गोविंदम’ नामक फिल्म कंपनी बनाई और फिल्म निर्माण की शुरुआत की। फिल्म की भाषा को लेकर उनके मन में अंतर्द्वंद शुरू से ही रहा लेकिन दर्शकों के फिल्मी लगाव और मणिपुर के सीमित बाज़ार के कारण फिल्म को हिन्दी में बनाया गया। अयैकपम ने इस फिल्म के लिए श्यामसुंदर सिंह का प्रसिद्ध मणिपुरी नाटक मैनु पेमचा चुना । विदाल दास पंचोली ने इसका हिन्दी अनुवाद किया था।
मैनु पेमचाकी शूटिंग अप्रैल 1948 से अप्रैल 1949 तक कोलकाता के काली स्टूडियो में की गई। कुछ दृश्य मणिपुर में ही शूट किए गए। फिल्म का निर्देशन ज्योति दास ने किया और इसमें बंगाली व मणिपुरी कलाकारों ने अभिनय किया। कहा जा सकता है कि बंगाल और मणिपुर के साझा प्रयास से फिल्म की शुरुआत हुई, हालाँकि वित्तीय संकट के कारण फिल्म की शूटिंग रुक गई। निर्माताओं ने मणिपुर के महाराजा से वित्तीय मदद मांगी। महाराजा तैयार भी हुए लेकिन तत्कालीन राजनीतिक परिस्थितियों के चलते वे इस प्रोजेक्ट पर ध्यान न दे सके। वे उन दिनों मणिपुर के भारतीय संघ में शामिल होने के मामले पर व्यस्त थे। लिहाजा मजबूरी में नौ रील की आधी फिल्म मैनु पेमचाको 1949 में बिना एडिटिंग किए सिनेमा घरों में दिखाया गया। एक अधूरी फिल्म मैनु पेमचाअसफल तो होनी ही थी,लेकिन अगले दो दशकों तक फिल्म निर्माताओं और निर्देशकों को भी मणिपुरी फिल्म निर्माण के लिए हतोत्साहित भी कर गई।
लंबे अंतराल के बाद 1966 में प्रदेश में पहली बार राज्य की एक संस्था ‘मणिपुर फिल्म सोसाइटी’ने फिल्मों के प्रचार प्रसार और निर्माण का जिम्मा लिया। ग़ौरतलब है कि शुरुआत में इस सोसाइटी ने भारतीय और विदेशी फिल्मों के समारोह करवाए और उसके बाद उन पर चर्चाएँ आयोजित की। सत्तर के दशक में मणिपुर फिल्म सोसाइटी ने राज्य में फिल्म विधा को लेकर जागरूकता फैलाने का महत्वपूर्ण काम किया। जिसके फलस्वरूप कालांतर में ऐसी फिल्में बनीं जिन्होने राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर गहरी छाप छोड़ी।
कह सकते हैं कि मणिपुरी सिनेमा का आरंभ भले ही 1948 में हुआ लेकिन वास्तविक तौर पर फिल्म निर्माण की औपचारिक शुरुआत अस्सी के दशक में हुई। यह दशक मणिपुरी सिनेमा के लिए भाग्यशाली और सफलता से परिपूर्ण रहा। कई सिने प्रेमी इस विधा से जुड़े,जिन्होंने मणिपुरी भाषा में फिल्म बनाने का निश्चय किया। इस ओर पहला कदम व्यवसायी करम मनमोहन ने बढ़ाया । करम ने लेखक अरांबम समरेन्द्र द्वारा लिखित नाटक तीर्थ यात्रा को फिल्म निर्माण के लिए चुना और फिल्म का नाम मातामगीमणिपुर रखा। हालाँकि फिल्म निर्माण के लिए आवश्यक उपकरण और टेक्निशियन मणिपुर से बाहर के ही थे। फिल्म का निर्देशन बंगाली फिल्म निर्देशक देवकी बोस के पुत्र देव कुमार बोस ने किया था जो ख़ुद भी बंगाली थे। हालाँकि फिल्म में काम करने वाले सभी कलाकार मणिपुर राज्य के ही थे। फिल्म में मुख्य अभिनेता रनीन्द्र शर्मा और येङ्ग्खोम रोमा थे। फिल्म के संबंध में समीक्षकों की राय है कि यह मणिपुर की पहली फिल्म मैनु पेमचासे कहीं ज्यादा मणिपुरी संस्कृति,सभ्यता के क़रीब दिखती है। अंततः 9 अप्रैल 1972 को इम्फाल के उषा सिनेमा और फ्रेंड्स टॉकीज़ तथा काकचिंग के आज़ाद सिनेमाघर में पहली मणिपुरी भाषा की फीचर फिल्म मातामगी मणिपुरमें प्रदर्शित की गई थी।
मणिपुर में फिल्म निर्माण का यह सिलसिला अब ज़ोर पकड़ रहा था। निर्माता-निर्देशक एस.एन. चाँद ने फिल्म ब्रोजेंद्रोगी लुंहोगबा (1972) तथा अरीबम श्याम शर्मा ने सफबी (1976) जैसी फिल्में बनाकर इस ओर सक्रिय भागीदारी दी। शर्मा ने 11 फीचर फिल्मों और 27 गैर फीचर फिल्मों का निर्देशन किया है। उनकी फिल्मों ने 16 राष्ट्रीय पुरस्कार जीते हैं। साथ ही उनकी 1978 में प्रदर्शित एक और फिल्म ओलेङ्ग्थाजी वाङ्ग्मादासों ने वित्तीय रूप से भी सफलता हासिल की। उसे भी 1979 का बेस्ट रीजनल सिनेमा का राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला था। उन्होंने ‘टेल्स ऑफ करेज’, ‘कीबुल लामजाओ नेशनल पार्क’, ‘कोरो कोसी’, ‘संगाई: डांसिंग डियर ऑफ मणिपुर’ आदि जैसी डॉक्यूमेंट्री फ़िल्में भी बनाई हैं तथा वे ‘इम्फाल सिने क्लब’ के संस्थापक अध्यक्ष भी हैं।
1966 में स्थापित हुई मणिपुर फिल्म सोसाइटी ने पूर्व में जिस तरह मणिपुरी सिनेमा के लिए सराहनीय भूमिका निभाई थी उसका ही प्रतिफल था कि अब मणिपुर सिनेमा राष्ट्रीय सिनेमा का खिताब पाने में सक्षम था। 1979 में एक और फिल्म सोसाइटी ‘इम्फाल सिने क्लब’के बन जाने से इस दिशा में और प्रयास होने लगे। यह संस्थान दुनिया भर की उत्तम फिल्मों का नियमित प्रदर्शन करने के साथ ही फिल्म अध्ययन की दिशा में भी कार्य करने लगा। इसके बाद 1980 में ‘मणिपुर फिल्म विकास निगम’ की स्थापना के बाद मणिपुर के सिने प्रेमियों और निर्माता-निर्देशकों के लिए नए आयाम खुलते दिखे। निगम ने स्टूडियो,फिल्म तकनीक प्रशिक्षण केंद्र और फिल्म लेबॉरेट्री की स्थापना से इस दिशा में बेहतर कार्य करना शुरू किया। सीधे तौर पर मणिपुरी सिनेमा के लिए ये सभी प्रयास बेहद सकारात्मक रहे। इस दशक में लाम्जा परसुराम (1974), ङ्ग्याके की नागसे (1974), खुंथाल लांजेल (1979) जैसी चर्चित और सराहनीय फिल्में बनीं जिन्होंने दर्शकों को आकर्षित किया।
1981 से 90 तक के दौर में अगर मणिपुरी सिनेमा की चर्चा करें तो एक बार फिर फिल्म निर्माण में गिरावट देखने को मिलती है। देश में होने वाले तमाम आंदोलन जिसमें मणिपुर के रहने वाले निवासियों के हक़ की बात की जा रही थी, भाषाई तथा आदिवासी मुद्दों पर बहुस्तरीय संघर्ष और इसके फलस्वरूप हिंसात्मक प्रदर्शन के चलते मणिपुर में सिनेमा की स्थिति इस काल में काफ़ी दयनीय हो चली थी। हालाँकि अस्सी के दशक के प्रसिद्ध और चर्चित निर्देशक अरिबम ने अपना काम जारी रखा और अपनी फिल्म इमागी निगठें (1981),जो इबोरहाल शर्मा ने निर्मित की थी, को फ्रांस के अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह (1982) तक पहुँचाया। यह सम्मान प्राप्त करने वाली यह पहली भारतीय फिल्म भी बनी। इस फिल्म की लोकप्रियता का आकलन इससे भी किया जा सकता है कि बाद में यह फिल्म न्यूयार्क,डेनवर,लोकार्नो,लॉस एंजिल्स, टोरंटो,मॉन्ट्रियल व हाँगकाँग के अंतर्राष्ट्रीय समारोहों में दिखाई गई। फिल्म में बाल कलाकार में रूप में काम करने वाले मास्टर लोकेन्द्र सिंह को इसके लिए 29वाँ राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला था।
निर्देशक अबिरम की 1983 में बनी एक और फिल्म पाओखुम अमाने टाइनेसीदे इन्टरनेशनल फिल्म समारोह में भाग लिया,वहीं 1983 में ही निर्देशक एम.ए. सिंह की फिल्म सना कीथलको कई अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर सम्मानित किया जा चुका था। यह वही समय था जब रंगीन फिल्मों का दौर अपने शबाब पर था। ऐसे में मणिपुरी फिल्म निर्माताओं ने भी इस ओर प्रयास शुरू किए । प्रथम प्रयास निर्देशक एम.ए. सिंह ने फिल्म लांगलेन थाडोई (1984) के रूप में किया। वर्ष 1990 की फिल्म इशनोंमें निर्देशक अरिबम ने एक मनोरोगी महिला की कहानी को जिस खूबसूरती से पेश किया वह मणिपुरी के सिने इतिहास में आज भी याद की जाती है। फिल्म की नायिका अनिथम किरणमाला को काँस अंतरर्ष्ट्रीय फिल्म समारोह में विशेष अवार्ड भी दिया गया। यह फिल्म लंदन, टोरंटो, वैंकुवरआदि जगहों के अंतर्राष्ट्रीय समारोहों में प्रदर्शित की गई। तमाम आर्थिक अवरोधों के बावजूद भी इस दशक में खोंजेल (1981), वांगमा (1981), थाबा (1984), याइरिपोक थंबालनु (1984), इचे शाखी (1986),एंगाली (1990) और पाप (1990) जैसी फिल्मों ने सफलता प्राप्त की।
समय के साथ-साथ मणिपुरी सिनेमा अपने अस्तित्व के साथ स्वयं को प्रतिष्ठित मंचों पर भी पहचान दिलाने की ओर प्रयास कर रहा था। नब्बे के दशक में उदारीकरण के बाद का मणिपुरी सिनेमा अपने और भी नए प्रयासों के साथ खड़े होने के लिए प्रयासशील हो चुका था। एक ओर जहाँ अंतर्रार्ष्ट्रीय समारोहों में यहाँ की फिल्मों की पैठ बन चुकी थी,वहीं फिल्म के विषय,तकनीक और फिल्म निर्माण के तरीकों में भी बदलाव देखने को मिला। ओकेन अमाकचेम निर्देशित खोंथांगऔर के इब्रोहाल शर्मा की संबल वांगमा ने 1993 में कई अंतरराष्ट्रीय समारोहों में धूम मचाई। संबलवांगमातथा अरिबम श्याम शर्मा की सानाबी (1995) को क्षेत्रीय भाषा की सर्वश्रेष्ठ फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार भी 1995 में मिला। इस दशक में तहमबल (1993), माधवी (1993), सानारी (1995), खंबा खामनु (1995), सनमानबी सानारी (1995), कनगा हिंघोनी (1997), चिंगलेसाना (1997) व इराल ओइरेज़ (1997) जैसी तमाम फिल्में बनीं।
21वीं सदी में सूचना और प्रौद्योगिकी के विकास के साथ आये मणिपुरी सिनेमा में बदलावों की चर्चा यहाँ ज़रूरी है। फिल्मों में लगाए गए धन और विषयों में आए परिवर्तन से पता लगता है कि मणिपुरी सिनेमा अपने समय और समाज को साथ लेकर चलने की ओर बढ़ रहा था। अब यहाँ की फिल्मों में लगने वाले पैसे में भी बढ़ोत्तरी के साथ कई सामाजिक राजनैतिक और अन्य विषयों का भी आगमन हुआ। किसी ख़ास व्यक्तित्व पर बनने वाली फिल्मों के अलावा अब यहाँ समसामयिक विषयों पर भी फिल्में बनने लगी हैं। नयी प्रौद्योगिकी के आने से मणिपुरी सिनेमा के विषयों और उसके प्रदर्शन के तरीकों में कितना परिवर्तन आया है यह प्रश्न आज प्रासंगिक है। एक ओर जहाँ सेल्यूलाइड से डिजिटल फिल्मों की तरफ मणिपुरी सिनेमा बढ़ा है उतना ही विषयों का भी आधुनिकीकरण देखा गया है। 2002 में बनी फिल्म लाम्मीयहाँ की पहली डिजिटल फिल्म बनी। गोवा में आयोजित 2002 में भारतीय अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह के पैनोरमा वर्ग में यह फिल्म प्रदर्शित की गई। वहीं अबिरम शर्मा की एक और फिल्म लीपाक्ली (2012) को एक बार फिर क्षेत्रीय सिनेमा की सर्वश्रेष्ठ फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला। निर्माता निर्देशक चंदम श्यामचरण तथा चंदम मनोरमा देवी की जापान लांदा इम्फाल (2012) में बनी। फिल्म का घटनाक्रम द्वितीय विश्वयुद्ध का है। जब जापानी फ़ौज ने ब्रिटिश व उनकी सहायक सेनाओं के ख़िलाफ़ मणिपुर में जंग छेड़ रखी है। एक मणिपुरी लड़की को एक जापानी से प्यार हो जाता है। लेकिन लड़की का परिवार इसका विरोध करता है। सैनिक की युद्ध में मौत हो जाती है और उधर लड़की जापानी सैनिक की याद के सहारे जीवन जीने का निर्णय लेती है। वहीं दूसरी ओर 2014 में प्रदर्शित जानसन मयङ्ग्लांबम की फिल्म रेसूरेक्सहन अमाम्बा सायोजमें एक ऐसी लड़की की व्यथा हैं जो स्मगलरों के विरुद्ध लड़ रहे अपने प्रेमी को खो देती है। नई सदी में बनी कुछ और फिल्मों- याईष्कुल पाखंग अंगाओबा (2012), सीएम मुनाम (2013), एगी खोंगुल (2014), खुबाक खुनाक (2015), नुंगशिट मापी (2015) आदि से मणिपुरी सिनेमा और समृद्ध हुआ है।
वर्ष 2014 में मोहन नाओरेम द्वारा निर्देशित ‘माई जापानीज़ नीस’अब तक की सबसे महंगी मणिपुरी फिल्म मानी जाती है। फिल्म 10 करोड़ के बजट में बनी थी । यह तथ्य ग़ौरतलब है की इसमें जापान,जर्मनी व इंग्लैंड के कलाकारों ने अभिनय किया था। फिल्म का कथानक द्वितीय विश्व युद्ध का है। इस दौरान मणिपुर के एक गाँव में जापानी सैनिक की ड्यूटी लगाई जाती है। उसकी दोस्ती एक ऐसे व्यक्ति से हो जाती हैं जिसकी बीवी बम धमाकों का शिकार हो चुकी होती है। फिल्म में दोनों कलाकार ब्रिटिश सेनाओं की खुफिया जानकारी इकट्ठा करते हैं लेकिन गाँव का दोस्त जल्द ही बम धमाकों का शिकार हो जाता है। मरने से पहले वह अपनी बेटी का जिम्मा अपने जापानी दोस्त को देता है। उस जापानी दोस्त ने बेटी के साथ उसी गाँव में रहने का फैसला किया और वह कभी अपने देश वापस नहीं जाता। फिल्म अपने दर्शकों को आरंभ से अंत तक बांधे रखती है।
इन सभी उपलब्धियों के बीच यह तथ्य ग़ौरतलब है कि मणिपुरी सिनेमा के समक्ष विभिन्न चुनौतियाँ आती-जाती रही हैं, जैसे- मूलभूत सुविधाओं,आधारभूत संरचना यथा उपकरण,प्रयोगशालाओं,स्टूडियो व सिनेमाघर की कमी से फिल्म फिल्मकर्मियों को जूझना पड़ता रहा है। यह समस्याएँ अभी भी बरक़रार हैं। बेहतर गुणवत्ता लाने के लिए प्रशिक्षण की कमी की वजह से भी कई बार फ़िल्मकारों को दुनिया भर में प्रचिलित तकनीक का पता नहीं चल पाता। फिल्मों के प्रदर्शन को लेकर लंबे समय से चली आ रही दिक्कतों से लगातार मणिपुरी सिनेमा जूझ रहा है। सिनेमा हॉल की कमी और नए मीडिया, ऑनलाइन स्ट्रीमिंग आदि की सुविधा के बीच जूझता मणिपुरी फिल्म उद्योग लगातार संघर्ष कर रहा है। युवाओं में मेईति भाषा से लगाव न होकर हिन्दी और अंग्रेजी की ओर लगातार बढ़ना फिल्म उद्योग को कई बार परेशान कर रहा है। जिससे मणिपुरी फिल्म उद्योग पर इसका सीधा असर देखने को मिल रहा है।
इन सब कठिनाइयों के बावजूद मणिपुरी सिनेमा के विकास के लिए लगातार प्रयास भी प्रमुख फ़िल्मकारों और लेखकों व निर्माताओं द्वारा किये जा रहे हैं। हम आगे मणिपुरी की प्रसिद्ध हस्तियों का उल्लेख करने जा रहे हैं, जिनके सक्रिय योगदान से मणिपुरी सिनेमा अपने शताब्दी वर्ष की ओर बढ़ रहा है। देखा जाये तो शताब्दी वर्ष की ओर बढ़ते मणिपुरी सिनेमा में कई उतार-चढ़ाव आए हैं फिर भी यहाँ कई ऐसे निर्माता, निर्देशक, गीतकार व कलाकार अपनी प्रतिभा से मणिपुरी सिनेमा को एक नई दिशा देते रहे हैं जिनके बल पर मणिपुरी सिनेमा अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर अपनी पहचान बना सका है। इनमें से निर्माताओं में भूपेंद्र शर्मा, बी. इनापामी थोक्चोम,चंदम श्यामचरण,दुर्लब,नारायण शर्मा, एच. गजेंद्र सिंह, करण मनमोहन, के. सखी देवी, थौयेंगबा थौंगाबा, निर्देशकों में अरिबम शर्मा,चंदम मनोरमा,खून जॉय कुमार, प्रेमजित नाइरोइबम, राजन मीटई, आर.के. किरपा, संबल वांगम, कलाकारों में अशोक कुमार, बेड़ा बिरेन, बोली गुमयम, देवाला धीरेन गोकुल अठोकपम, जी. रवींद्र शामरा, लाइरंजन ओलेन जगेश्वर, कंगाबम नीरा निर्मला, सोमा लेशरम, सुनन्दा, सुष्मिता, गीतकारों में अजित, बीना तोमबो, जयंत कुमार शर्मा, चंदम श्याम चरण, फुलेन्द्र ठंगियाम कोरा, प्रमोदिनी,ए. बिमला, अनुराधा पौड़वाल, नवचंद शर्मा, एम. पहाड़ी, पी. चंदा कुमार, साधना सरगम, सरजू बाला, एस.एन. चाँद, सुनीति बालान, ठोंगम्बा मीती जैसे प्रमुख रहे हैं। इनमें से कई ऐसे भी नाम हैं जो हिन्दी सिनेमा के भी प्रतिष्ठित नाम हैं लेकिन उनका मणिपुरी सिनेमा में दिये योगदान को भूलना आसान नहीं है। इन सभी का योगदान मणिपुरी सिनेमा के विकास में किसी न किसी रूप में रहा है।